जयपुर शहर के पुराने हिस्से में एक बड़ा रेलवे स्टेशन था — “जयपुर जंक्शन।”
हर सुबह जब सूरज की पहली किरण लाल पत्थरों पर पड़ती, तो स्टेशन की सीढ़ियों पर बैठा एक दुबला-पतला किशोर आंखें मलते हुए उठता।
उसका नाम था आरिफ़।
वह लगभग सत्रह साल का था, पर चेहरा समय से बहुत बड़ा लगने लगा था।
पिता सालों पहले गुजर गए थे, माँ बीमार रहती थी, और घर चलाने की जिम्मेदारी उसी पर थी।
आरिफ़ स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर पुराने जूते पालिश करता था।
लोगों के चमकते जूते देखकर उसे लगता, “काश मेरी ज़िंदगी भी इन जूतों की तरह चमक पाती।”
कभी-कभी कोई यात्री उसे दो रुपये ज़्यादा दे देता तो वह खुश होकर घर लौटता, माँ के लिए दवा खरीदता और बाकी पैसे मिट्टी के गुल्लक में डाल देता।
एक दिन सर्दियों की सुबह, स्टेशन पर हल्की धुंध थी।
ट्रेन “अजमेर एक्सप्रेस” रुकी ही थी कि भीड़ के बीच से एक ऊँचे कद का, मोटे कोट में लिपटा व्यक्ति उतरता दिखाई दिया।
सूट-बूट, सुनहरी घड़ी, महंगे जूते — देखकर कोई भी कह सकता था कि वह बहुत बड़ा आदमी है।
आरिफ़ भागा-भागा उसके पास पहुँचा और बोला,
“साहब, जूते पॉलिश करा लीजिए, पाँच रुपये लगेंगे।”
वह आदमी बोला, “हर दिन यही काम करते हो?”
आरिफ़ मुस्कुराकर बोला, “जी साहब, यही रोज़ी है।”
वह आदमी बोला, “तुम हमेशा दूसरों के जूते चमकाते रहते हो, कभी सोचा कि अपनी ज़िंदगी कैसे चमकाओगे?”
आरिफ़ ने सिर झुका लिया।
वह बोला, “साहब, मेरे पास तो बस यह कपड़ा है, यही मेरे हिस्से की चमक है।”
वह आदमी मुस्कुराया और बोला,
“जब तक तुम दूसरों के जूते चमकाने में व्यस्त रहोगे, तब तक अपनी राह कभी नहीं देख पाओगे।
अगर तुम्हारे पास दुनिया को देने को कुछ नहीं है, तो तुम हमेशा दूसरों के नीचे ही रहोगे।
देना सीखो — बस पैसे नहीं, कुछ ऐसा दो जो दिल से निकले।”
इतना कहकर वह यात्री ट्रेन में बैठ गया और चला गया।
आरिफ़ काफी देर तक वहीं बैठा सोचता रहा —
“देना सीखो... लेकिन मैं क्या दूँ? मेरे पास तो कुछ भी नहीं।”
उस रात आरिफ़ बहुत बेचैन रहा।
वह बार-बार सोचता, “अगर मैं कुछ दे नहीं सकता, तो शायद मैं हमेशा छोटा ही रहूँगा।”
लेकिन उसके पास देने को है ही क्या?
जूते पालिश करने वाला लड़का किसी को क्या दे सकता है?
अगली सुबह, वह स्टेशन पर बैठा तो उसकी नजर पास के एक छोटे बच्चे पर पड़ी — बच्चे के पैर नंगे थे।
सर्दी में उसके पैर नीले पड़ रहे थे।
आरिफ़ के पास अपने पुराने, फटे जूते रखे थे जो अब किसी काम के नहीं थे।
उसने तुरंत वे जूते उठाए और उस बच्चे के सामने रख दिए।
“ले, पहन ले। छोटे हैं पर कुछ तो गर्मी देंगे,” उसने कहा।
बच्चे की आँखों में चमक आ गई।
वह जूते पहनकर उछलने लगा और बोला, “भैया, तुम बहुत अच्छे हो!”
उस दिन आरिफ़ को भीतर से एक अजीब सी गर्माहट महसूस हुई।
शाम तक उसने देखा कि लोग उसे ज़्यादा पैसे दे रहे हैं।
शायद उसके मुस्कुराने में कुछ बदल गया था —
पहली बार उसने कुछ दिया था, और बदले में कुछ पा लिया था।
अगले दिन उसने एक विचार बनाया —
अब वह हर ग्राहक को जूते पालिश करने के बाद एक छोटा सा “धन्यवाद” कार्ड देगा।
वह कार्ड खुद बनाता — स्टेशन के फेंके हुए कागज़ों से।
हर कार्ड पर वह लिखता था —
“आपकी मेहनत के ये जूते अब और चमकेंगे। आपका दिन मंगलमय हो।”
लोग जब वह कार्ड देखते, तो मुस्कुरा उठते।
कई यात्री तो उसे दस या बीस रुपये तक दे देते थे।
कुछ दिनों में ही आरिफ़ का नाम स्टेशन पर फैल गया —
“वो कार्ड वाला जूता पालिश करने वाला लड़का।”
अब उसके आस-पास छोटे बच्चे भी आने लगे।
वह उन्हें सिखाने लगा कि कार्ड कैसे बनाते हैं, साफ-सुथरा कैसे रहना चाहिए, और ग्राहकों से नम्रता से कैसे बात करनी चाहिए।
धीरे-धीरे उसने अपनी छोटी-सी टीम बना ली।
छह महीने बीत गए।
अब आरिफ़ स्टेशन के बाहर एक छोटी सी दुकान चला रहा था — “आरिफ़ शू केयर & स्माइल सर्विस”।
वह सिर्फ जूते पालिश नहीं करता था, बल्कि जूते रिपेयर, पॉलिश, और साफ करने का पूरा काम करता था।
साथ में मुफ्त में पुराने जूते इकट्ठे कर उन्हें ज़रूरतमंदों में बांटता था।
उसकी दुकान के बोर्ड पर लिखा था —
“हर जूते की चमक किसी की मुस्कान बन सकती है।”
लोग उसके विचार से प्रभावित होने लगे।
अख़बार में उसका ज़िक्र छपा — “गरीब लड़के ने स्टेशन पर शुरू किया अनोखा सेवा अभियान”।
वह अब सिर्फ कमाने नहीं, बल्कि देने में भी यकीन रखता था।
एक दिन दोपहर में एक काली कार उसकी दुकान के सामने आकर रुकी।
दरवाज़ा खुला और वही व्यक्ति बाहर निकला — वही जो महीनों पहले स्टेशन पर उससे मिला था।
सूट, टाई, वही मुस्कान।
वह बोला, “क्या तुम आरिफ़ हो? मुझे याद है, उस दिन मैंने तुमसे कहा था देना सीखो।”
आरिफ़ ने हंसते हुए कहा,
“जी साहब, आपकी बात ने तो मेरी ज़िंदगी बदल दी।”
“सच?” वह व्यक्ति मुस्कुराया।
“हां साहब, उस दिन से मैंने तय कर लिया कि सिर्फ पैसे नहीं, मैं लोगों को कुछ अच्छा अनुभव दूँगा।
शुरुआत छोटे कार्ड से की थी, अब मैं दर्जनों बच्चों को काम सिखा रहा हूं।
और जो भी कमाई होती है, उसका एक हिस्सा जरूरतमंदों को देता हूं।”
वह व्यक्ति भावुक हो गया।
बोला, “बहुत अच्छा काम कर रहे हो बेटा। जानते हो मैं कौन हूँ?”
आरिफ़ ने सिर हिलाया।
“मैं रघुनाथ गोयल हूँ, ‘गोयल लेदर कंपनी’ का मालिक। मैं ऐसे युवाओं की तलाश में था जो ईमानदारी और सेवा की भावना से काम करें।
अगर तुम चाहो, तो मेरे साथ काम कर सकते हो। मैं तुम्हारे जैसे लोगों से कंपनी का एक नया विभाग शुरू करना चाहता हूं — ‘स्माइल केयर लाइन’।"
आरिफ़ की आँखें चमक उठीं, पर उसने विनम्रता से कहा,
“साहब, मैं आपका आभारी हूँ, लेकिन मैं यहां से नहीं जाऊँगा।
मैं चाहता हूँ कि ये बच्चे भी अपनी चमक खुद खोजें।
आप चाहें तो हमारे साथ मिलकर इस सेवा को बड़ा बना सकते हैं।”
रघुनाथ गोयल कुछ पल चुप रहे, फिर मुस्कुराकर बोले,
“यही तो असली व्यापारी की सोच होती है — लेनदेन का सही अर्थ।
तुम्हें मेरा पूरा सहयोग मिलेगा।”
कुछ महीनों में “आरिफ़ शू केयर” पूरे शहर में मशहूर हो गया।
वह स्टेशन के आस-पास रहने वाले गरीब बच्चों को काम सिखाता, उन्हें रोज़गार देता।
कई लोगों ने दान देना शुरू कर दिया, पर आरिफ़ कभी मुफ्त में कुछ नहीं लेता था।
वह कहता —
“साहब, हमें मदद नहीं, अवसर चाहिए। हम बदले में काम देंगे, सेवा देंगे।”
धीरे-धीरे उसकी टीम सौ से ज़्यादा बच्चों तक पहुंच गई।
हर बच्चा रोज़ मुस्कुराते हुए कार्ड बनाता और ग्राहकों को देता था —
“आपकी मेहनत की राह चमक रही है।”
एक साल बाद, उसी जयपुर स्टेशन पर एक ट्रेन रुकी।
प्लेटफॉर्म पर खड़ा आरिफ़ अब सूट-बूट में था।
वह किसी मीटिंग के लिए दिल्ली जा रहा था।
उसी वक्त एक बुज़ुर्ग आदमी उसके पास आया, हाथ में पुराना जूता था।
आरिफ़ ने जूता देखा, मुस्कुराया और बोला,
“आप चाहें तो मैं इसे अभी ठीक कर दूं।”
बुज़ुर्ग ने हँसते हुए कहा, “नहीं बेटा, अब तुम्हारे पास वक्त नहीं होगा।”
आरिफ़ ने गौर से देखा — वो रघुनाथ गोयल थे, अब सफ़ेद बालों के साथ और पहले से ज़्यादा विनम्र।
“कैसे हो?” उन्होंने पूछा।
“बहुत अच्छा, साहब। अब तो मैं भी अपनी खुद की कंपनी चला रहा हूं —
‘स्माइल एंड शाइन एंटरप्राइज़ेज़।’
हम पुराने जूतों को नया रूप देकर गरीबों में बाँटते हैं, और जिनसे पैसा लेते हैं, उनसे वादा करते हैं कि वे भी किसी की मदद करेंगे।”
गोयल जी ने गर्व से कहा,
“देखो बेटा, मैंने तुम्हें बस एक विचार दिया था।
तुमने उसे जीवन बना लिया।
यही असली व्यापार है — जहां मुनाफ़ा केवल पैसों में नहीं, दिलों में गिना जाता है।”
ट्रेन की सीटी बजी।
आरिफ़ ने सिर झुकाकर प्रणाम किया और कहा,
“साहब, आपने मुझे सिखाया कि लेनदेन सिर्फ पैसों का नहीं, विश्वास और सम्मान का भी होता है।”
ट्रेन धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी।
आरिफ़ खिड़की से बाहर देखता हुआ मुस्कुराया —
धुंध के पार उसे अपना पुराना स्टेशन, अपने छोटे बच्चे और अपनी मां का चेहरा दिखाई दिया।
उसकी आंखों में चमक थी,
वही चमक जो उसने कभी दूसरों के जूतों में देखी थी,
अब उसकी खुद की ज़िंदगी में थी।
यह कहानी बताती है कि देने वाला हमेशा अमीर होता है,
और जो केवल लेने की सोच रखता है, वह हमेशा खाली रहता है।
जब हम दूसरों को खुश करने के लिए, कुछ लौटाने के लिए जीने लगते हैं —
तो दुनिया हमें दोगुना लौटाती है।
आरिफ़ ने अपनी सोच बदली,
और ज़िंदगी ने अपना रूप बदल लिया।
सफलता पैसे से नहीं, सोच से बनती है।
जो अपनी सोच को बड़ा कर लेता है, वही सच्चा अमीर होता है।
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